महाराष्ट्र चुनाव: महाराष्ट्र में आगामी चुनाव के लिए बीजेपी की पहली सूची सामने आ चुकी है, और इस बार भी परिवारवाद का मुद्दा चर्चा में है। बीजेपी की इस सूची में उन नेताओं के परिवार के सदस्य शामिल हैं, जो पहले से राजनीति में सक्रिय हैं। वहीं, विपक्ष ने इसे लेकर सवाल उठाए हैं कि बीजेपी परिवारवाद के खिलाफ जो आवाज उठाती है, क्या अब उसने भी परिवारवाद को अपना लिया है?
महाराष्ट्र से झारखंड तक परिवारवाद का बोलबाला
बीजेपी ने ना केवल महाराष्ट्र, बल्कि झारखंड और बिहार के उपचुनावों में भी कई सीटों पर परिवार के सदस्यों को टिकट दिया है। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का नाम चर्चा में है। फडणवीस का राजनीतिक सफर उनके पिता और अन्य परिवार के सदस्यों से गहरा जुड़ा है। उनके पिता गंगाधर राव फडणवीस नागपुर से एमएलसी थे, और उनके परिवार के अन्य सदस्य भी राजनीति में सक्रिय रहे हैं। इसी प्रकार, बीजेपी ने विधानसभा चुनावों के लिए भी नेताओं के परिवार के लोगों को प्रमुखता से टिकट दिए हैं।
महाराष्ट्र चुनाव: परिवारवाद या संसाधनवाद?
विपक्षी पार्टियों ने आरोप लगाया है कि बीजेपी जिस परिवारवाद का विरोध करती है, दरअसल वह भी संसाधनवाद का ही एक रूप है। वे सवाल उठाते हैं कि राजनीति में जिनके पास संसाधन और संपत्ति है, वही चुनाव लड़ सकते हैं। बिना मजबूत पारिवारिक और आर्थिक समर्थन के किसी नेता का टिक पाना मुश्किल हो जाता है। इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए, विपक्ष ने कहा है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतने मजबूत होते हुए भी परिवारवाद का मुकाबला नहीं कर सके, तो फिर इतने सालों तक इस मुद्दे पर बात क्यों की गई?
कई परिवारों को टिकट, बीजेपी का रुख सवालों के घेरे में
महाराष्ट्र की बीजेपी सूची में कई नाम ऐसे हैं, जो राजनीतिक परिवारों से आते हैं। अशोक चौहाण की बेटी श्री जया चौहाण को भोकर सीट से टिकट मिला है। वहीं, विधायक आशीष शेलार और उनके भाई विनोद शेलार को भी टिकट मिला। अन्य प्रमुख नामों में पूर्व सांसद हरिभाऊ जावले के बेटे अमोल जावले, पूर्व विधायक लक्ष्मण जगताप के परिवार से शंकर जगताप, और विधायक बबन राव पाचपुते की पत्नी प्रतिभा पाचपुते शामिल हैं। राज्यसभा सांसद धनंजय महादिक के छोटे भाई अमल महादिक, और पूर्व मुख्यमंत्री शिवाजी राव पाटिल निलंगेकर के पोते संभाजी को भी टिकट दिया गया है।
बीजेपी की कथनी और करनी में अंतर?
विपक्ष का आरोप है कि बीजेपी की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। प्रधानमंत्री मोदी परिवारवाद के खिलाफ कई बार भाषण दे चुके हैं, लेकिन जब बात उनकी पार्टी की आती है, तो परिवारवाद साफ तौर पर दिखाई देता है। विपक्ष का कहना है कि बीजेपी ने जिन दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाया, खुद उसी राह पर चल पड़ी है।
लोकतंत्र में परिवारवाद का असर
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि परिवारवाद सिर्फ एक पार्टी का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पूरे भारतीय लोकतंत्र की चिंता का विषय है। जब किसी दल में केवल परिवार के लोगों को आगे बढ़ने का मौका मिलता है, तो यह युवा और नए चेहरों के लिए अवसरों को सीमित कर देता है।
परिणाम
महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी समर में परिवारवाद एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी इस आरोप का सामना कैसे करती है और क्या वह परिवारवाद के मुद्दे पर अपने रुख में बदलाव करेगी। जनता के सामने यह सवाल भी है कि राजनीति में योग्यता को किस हद तक प्राथमिकता दी जाती है और क्या परिवारवाद का अंत संभव है?
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